कुंवारी कन्याओं की कामनाओं का कलश है संजा….इंदौर मध्य प्रदेश: चंद्रकांत सी पूजारी संजा अर्थात संझा, यह मालवा की लोक संस्कृति है। इसमें मां पार्वती की पूजा की जाती है। कहा जाता है मालवा पार्वतीजी का पीहर है। वे 15 दिन पीहर में रहती हैं। इस समय मालवा में संजा बनाकर उनकी पूजा की जाती है। संजा सिर्फ एक परंपरा नहीं है। संजा के मांडनों तथा गीतों में महिलाओं के विवाहित जीवन से जुड़े कई जीवन सूत्र छिपे होते हैं, जिन्हें बचपन में ही कुंवारी कन्याओं के जीवन में संजा पर्व के दौरान समझने का मौका मिलता है। संजा हमें हमारी संस्कृति से रूबरू कराती है। इसमें फूल हैं, सूर्य है, चंद्रमा है यानी यह पर्यावरण संरक्षण का संदेश देती है। संजा गोबर से बनाई जाती है …गोबर में एंटीसेप्टिक तत्व होते हैं। वर्षांत में हानिकारक कीट पैदा हो जाते हैं। ऐसे में गोबर से बनी संजा उन कीटाणुओं को नष्ट करने में सहायक होती है। वह गोबर नदी में प्रवाहित किया जाता है, जिससे नदी के दोनों किनारों की वनस्पति पोषित होती है।संजा में सारा संसार समाया है। संजा ऐसी लोक शैली है जिसमें हमें चित्रकला, मूर्तिकला, संगीत, और साहित्य के दर्शन एक साथ होते हैं। संजा दिन छते ही बना ली जाती है यानि सूरज ढलने से पहले…..और सूरज ढलने के बाद पूजा का सिलसिला शुरू होता है, जो रात तक चलता है।संजा पर्व के दिन पूनम का पाटला बनता है तो बीज अर्थात दूज का बिजौरा बनता है। तीसरे दिन घेवर, चौथे दिन चौपड़, पांचवें दिन पांचे या पांच कुंवारे बनाए जाते हैं। छठे दिन छबड़ी, सातवें दिन सातिया-स्वस्तिक, आठवें दिन आठ पंखूड़ी का फूल, नौवें दिन डोकरा-डोकरी उसके बाद वंदनवार, केल, जलेबी की जोड़ आदि इस तरह हर तिथिवार अलग डिजाइन व आखरी दिन यानि अमावस को किलाकोट बनता है। जिसमें जाड़ी जसौदा, पतली पेमा, सोन चिरैया, ढोली आदि पहले बनते और फिर संजाबाई के गहने कपड़े भंडार आदि बनाए जाते है और हाँ उस वर्गाकार आकृति में ऊपर दायें-बायें चाँद-सूरज तो हर दिन बनते है। श्राद्घ पक्ष की समाप्ति पर ढोल-ताशे के साथ सारे समेटकर नई नवेली बन्नी की तरह बिदा होती है संजा। संजा तू थारा घर जा….इस छोटे से पाक्षिक आयोजन से अनेकानेक कलाकार जन्म लेते है , जिनमें एकाग्रता,तल्लीनता, कबाड़ से जुगाड, गायन, वादन,आपसी सहयोग,और सामाजिक समरसता के नन्हें अंकुरण बाल मन में रोपित हो जाते हैं। गीतों के माध्यम से सन्जा माता के प्रति समर्पण का भाव जागता है जो कालांतर में ईश वन्दना और प्रकृति रूपी परमात्मा से स्वतह ही जोड़ देता है….आइए हम इस मालवा की संस्कृति के नन्हें से आयोजन को सहेजे,सराहे और समाज के उस वर्ग को भी इससे परिचित करवाए जो इससे अनभिज्ञ है ! जिसमें कुछ भजन भी गाए जाते हैं शाम को आरती होती है भजन इस प्रकार रहते हैं संजा तु पूजा थारा घर कि थारी मां मारेगी टूटेगी हर बाप गए गुजरात गुजरात से लायू हिरनी का बड़ा-बड़ा दांत के बच्चा बच्ची डर पर है गा जैसे भजन गाए जाते हैं और बिदा की जाती हैप्रो. स्वप्निल व्यास लेखक एक पर्यावरणविद,स्वतंत्र पत्रकार,सहायक प्राध्यापक एवं मालवमंथन के संस्थापक है