श्रीराधा बोलीं− हृषीकेश! तुम तो साक्षात गोकुलेश्वर हो, फिर गोकुल और मथुरा छोड़कर कुशस्थली क्यों चले गये? इसका कारण मुझे बताओ। नाथ! तुम्हारे वियोग से मुझे एक−एक क्षण युग के समान जान पड़ता है। एक−एक घड़ी एक−एक मन्वन्तर के तुल्य प्रतीत होती है और एक दिन मेरे लिये दो परार्ध के समान व्यतीत होता है। देव! किस कुसमय में मुझे दुखदायी विराह प्राप्त हुआ, जिसके कारण मैं तुम्हारे सुखदायी चरणारविन्दों का दर्शन नहीं कर पाती हूं। जैसे सीता श्रीराम को और हंसिनी मानसरोवर को चाहती हैं, उसी तरह मैं तुम मानदाता रासेश्वर से नित्य मिलन की इच्छा रखती हूं। तुम तो सर्वज्ञ हो, सब कुछ जानते हो। मैं तुमसे अपना दुख क्या कहूं। नाथ! सौ वर्ष बीत गये, किंतु मेरे वियोग का अंत नहीं हुआ।
अपने परम प्रियतम स्वामी श्यामसुंदर से ऐसा वचन कहकर स्वामिनी श्रीराधा विरहवस्था के दुखों को स्मरण करके अत्यन्त खिन्न हो फूट−फूटकर रोने लगीं। प्रिया को रोते दिख प्रियतम श्रीकृष्ण ने अपने वचनों द्वारा उनके मानसिक क्लेश को शांत करते हुए यह प्रिय बात कही।
श्रीकृष्ण बोले− प्रिये राधे! यह शोक शरीर को सुखा देने वाला है, अतः तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये। हम दोनों का तेज एक है, जो दो रूपों में प्रकट हुआ है, इस बात को ऋषि−महर्षि जानते हैं। जहां मैं हूं, वहां सदा तुम हो और जहां तुम हो, वहां सदा मैं हूं। हम दोनों में प्रकृति और पुरुष की भांति कभी वियोग नहीं होता। राधे! जो नराधम हम दोनों के बीच में भेद देखते हैं, वे शरीर का अंत होने पर अपनी उसी दोष दृष्टि के कारण नरकों में पड़ते हैं। श्रीराधिके! जैसे चकई प्रतिदिन प्रातःकाल अपने प्यारे चक्रवाक को देखती है, उसी तरह आज से तुम भी मुझे सदा अपने निकट देखोगी। प्राणवल्लभे! थोड़े ही दिनों के बाद मैं समस्त गोप−गोपियों के और तुम्हारे साथ अविनाशी ब्रह्म स्वरूप श्रीगोलोक धाम में चलूंगा।
माधव की यह बात सुनकर गोपियों सहित श्रीराधिका ने प्रसन्न हो प्यारे श्याम सुंदर का उसी प्रकार पूजन किया, जैसे रमा देवी रमापति की पूजा करती हैं।