दूर-दूर से लोग मन्नत मांगने आते हैं अजमेर दरगाह शरीफ

सूफी संत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती का दरगाह शरीफ में सालाना उर्स मुस्लिम कलेण्डर के रज्जब माह की पहली तारीख से शुरू हो गया है और अपने पूरे शबाब पर चल रहा है। जायरीन विश्व के कोने-कोने से चादर एवं अक़ीक़द के फूल चढ़ाने पहुँच रहे हैं। दरगाह ही नहीं पूरा अजमेर इस विश्व प्रसिद्ध उर्स की खुशबू से महक रहा है। दरगाह के आसपास बाजार फूलों और सभी प्रकार की छोटी-बड़ी चादरों की दुकानों से सजा है। जायरीनों की आस्था एवं खादिमो की सक्रियता देखते ही बन रही हैं। क्या देश से क्या विदेशों से पूरी दुनिया के कोने-कोने से आये जायरीनों का उत्साह देखते ही बनता हैं। कई बड़ी-बड़ी हस्तियों की और से प्रतिदिन चादरें चढ़ाई जा रही हैं। एक माह पूर्व से ही तैयारियां की जा रही थी और दावत नामा भिजवाया जा रहा था। जैसे ही चाँद दिखा उर्स शुरू हो गया और जन्नती दरवाजा खोल दिया गया। इस दरवाजे से गुजरना जायरीन अपना सौभाग्य समझते हैं। विश्व और भारत की अनेक नामी हस्तियां यहां की जियारत कर चुकी हैं।
फरवरी की 20 तारीख को बुलंद दरवाजे पर झंडा फहराकर झंडे की रस्म अदा की गई। बीसवीं सदी के आरंभ में पेशावर (पाकिस्तान) के एक सूफी सत्तार शाह ने झण्डा चढ़ाने की रस्म आरंभ की थी। उर्स के दौरान प्रातःकाल नमाज के बाद अहातानूरी में महाराज परिवार व अन्य खादिमों द्वारा ख्वाजा के नाम की नौ दिवसीय गद्दियां लगाई जाती है। यहां नौ दिन तक जायरीनों के लिए प्रार्थनाएं हुआ करती हैं। पहली रज्जब से छः रज्जब तक रोज रात में मजार शरीफ को केवड़े व गुलाब के जल धोया जाता है। दरगाह के खादिमों द्वार यह रस्म पूरी की जाती है और जिस पानी से मजार शरीफ को गुसल कराया जाता है, उसे खादिमगण बोतलों में भरकर रख लेते हैं। इसे जायरीन प्रसाद के तौर पर ले जाते हैं। दरगाह दीवान की सदारत में छः दिन, रात ग्यारह बजे से प्रातः चार बजे, तक महफिलखाना में आध्यात्मिक कव्वालियां होती हैं। भारत के मशहूर कव्वाल यहां सूफी संतों के भजन गाते हैं। इनके प्रभाव से कई बार उपस्थित सूफी सन्त रक्स (सूफियों का आध्यात्मिक नृत्य) करने लगते हैं। रज्जब की छठी तारीख ख्वाजा साहब के वफात (स्वर्गवास) का दिन है। इस अवसर पर सुबह से ही जायरीन दरगाह में यथा स्थान बैठने लगते हैं और हजरत ख्वाजा गरीब नवाज के नाम की माला फेरते हैं। दोपहर डेढ़ बजे तोप दागकर तथा शहनाई बजाकर उर्स समाप्ती की घोषणा की जाती है। जायरीन आपस में गले मिलकर उर्स में शामिल होने के लिए मुबारकबाद देते हैं रज्जब की नौ तारीख के दिन आखिरी गुसल होता है। इस दिन अधिकतर जायरीन दरगाह शरीफ के फर्श की धुलाई करते हैं। भिश्ती पानी डालते रहते हैं और उसमें भीगते हुए दरगाह शरीफ को धो पौंछकर साफ करते हैं। (इसे जायरीन अपना सौभाग्य मानते हैं) मुगल बादशाह की बेटी जहांआरा ने मजार शरीफ की चैखट अपने सिर के बालों से पौंछी थी उर्स के दौरान छहों दिन जन्नती दरवाजा खुला रहता है। 
 
दरगाह में मजार पर चादर चढ़ाने की अनूठी प्रथा पूरी दुनिया में विलक्षण है। पूरे विश्व में और कहीं भी सूफी संतों के मजार पर जायरीनों द्वारा चादर नहीं चढ़ाई जाती है। अजमेर शरीफ स्थित दरगाह में मजार पर बयालीस गज की श्वेत मखवाली चादर ढकी हुई है। छः-छः गज के सात टुकड़ों से बनी इस चादर पर दुनिया भर के जायरीन वर्षों से चादर चढ़ा रहे हैं। सामन्यतः इन चादरों का रंग श्वेत, लाल, हरा होता है। चादर एक रूमाल जितनी छोटी भी होती है। मजार की चादर दिन में दो बार बदली जाती है- प्रातः चार बजे और दिन में तीन बजे। छोटी व अन्य सामान्य चादरों में दरगाह दीवान एवं खादिमों का समान हिस्सा होता है। दरगाह में चादर किसी न किसी खादिम के जरिये ही चढ़ाई जा सकती है। चादर पर गुलाब के फूल व इत्र रखे जाते हैं। इत्र-फूलों से महकती चादर को श्रद्धालु सिर पर रखकर मजार तक ले जाते हैं। चादर चढ़ाने का दृश्य भी अनुपम होता है। चादर का आध्यात्मिक अर्थ आत्मा है, आत्म शुद्धि है। मजार पर ढकी चादर शुद्ध चेतना का प्रतीक है। जब जायरीन मजार की चादर पर अपनी चादर चढ़ाता है तो उसका प्रतीकार्थ होता है- “या खुदा! हमारे भीतर की मलिनताओं को दूर कर, अपनी पाक नजर से हमको भी पाकीज कर।''
 
उर्स के दौरान देग लूटने की अद्भुत परंपरा है। दरगाह में बुलन्द दरवाजे के पश्चिम में बड़ी देग व पूरब दिशा में छोटी देग दर्शनीय है। उर्स के दौरान या दोनों देगें प्रतिदिन पकवाई जाती हैं व पारम्परिक तरीके से देग लूटी जाती हैं। बड़ी देग में 120 मन चावल पकाने के लिए “अन्दरकोटी” लोग आते हैं। देग पर से कपड़ा हटा दिया जाता है और देग से गर्म भाप के बादल उठते हैं। किसमें इतनी हिम्मत जो इतनी गर्म भाप को भेदकर देग में से चावल निकाले? लेकिन तभी आठ-दस लोग शरीर पर रूई रेगजीन लपेटे, पांवों पर पैड बांधे, हाथों पर मोटे दस्ताने चढ़ाये और सिर-मुंह को भली-भांति ढके हुए देग की तरफ झपटते हैं। दर्शकों में जिन्होंने पहले कभी यह नजारा नहीं देखा है, एक भयाक्रांत की लहर फैल जाती है। किन्तु अन्दरकोटियों की यह टोली देग में कूद जाती है। दर्शक को लगता है कि जैसे वे सब भाप में डूब गये हैं किन्तु उनके अभ्यस्त हाथ मजबूत देग का लंगर बाल्टियों में भर-भर कर बाहर खड़े अपने साथियों को देते हैं और लगातार 10-15 मिनट में ही सारी देग खाली हो जाती है। जरा कल्पना कीजिए एक सौ बीस मन लंगर इतना गरम की अपना हाथ लगाये तो हाथ जल जायें। देग लूटने वालों का यह पुश्तैनी काम है। देग लुटवाने की प्रथा मुस्लिम समाज में बहुत आस्थापूर्ण है। जब कभी भी किसी समृद्ध व्यक्ति की कोई मुराद पूरी हो जाती है तो वह बड़ी अथवा छोटी देग तकसीम कराता है। कीमती चादरें दरगाह के तोशाखाना में रख दी जाती है।

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